भागवत पुराण – दशम स्कन्ध – अध्याय – 27

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श्रीकृष्णका अभिषेक

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने गिरिराज गोवर्द्धनको धारण करके मूसलधार वर्षासे व्रजको बचा लिया, तब उनके पास गोलोकसे कामधेनु (बधाई देनेके लिये) और स्वर्गसे देवराज इन्द्र (अपने अपराधको क्षमा करानेके लिये) आये।।१।।

भगवान् का तिरस्कार करनेके कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे।

इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थानमें भगवान् के पास जाकर अपने सूर्यके समान तेजस्वी मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श किया।।२।।

परम तेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव देख-सुनकर इन्द्रका यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी हूँ।

अब उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की।।३।।

इन्द्रने कहा – भगवन्! आपका स्वरूप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुणसे रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है।

यह गुणोंके प्रवाहरूपसे प्रतीत होनेवाला प्रपंच केवल मायामय है; क्योंकि आपका स्वरूप न जाननेके कारण ही आपमें इसकी प्रतीति होती है।।४।।

जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादिसे है ही नहीं, फिर उन देह आदिकी प्राप्तिके कारण तथा उन्हींसे होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आपमें हो ही कैसे सकते हैं? प्रभो! इन दोषोंका होना तो अज्ञानका लक्षण है।

इस प्रकार यद्यपि अज्ञान और उससे होनेवाले जगत् से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी धर्मकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये आप अवतार ग्रहण करते हैं और निग्रह-अनुग्रह भी करते हैं।।५।।

आप जगत् के पिता, गुरु और स्वामी हैं।

आप जगत् का नियन्त्रण करनेके लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं।

आप अपने भक्तोंकी लालसा पूर्ण करनेके लिये स्वच्छन्दतासे लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपनेको ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान मर्दन करते हुए अनेकों प्रकारकी लीलाएँ करते हैं।।६।।

प्रभो! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपनेको जगत् का ईश्वर माननेवाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भयके अवसरोंपर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषोंके द्वारा सेवित भक्तिमार्गका आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं।

प्रभो! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टोंके लिये दण्डविधान है।।७।।

प्रभो! मैंने ऐश्वर्यके मदसे चूर होकर आपका अपराध किया है; क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभावके सम्बन्धमें बिलकुल अनजान था।

परमेश्वर! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधीका यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञानका शिकार न होना पड़े।।८।।

स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन्! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर-सेनापति केवल अपना पेट पालनेमें ही लग रहे हैं और पृथ्वीके लिये बड़े भारी भारके कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय और जो आपके चरणोंके सेवक हैं – आज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय हो – उनकी रक्षा हो।।९।।

भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं।

आप यदुवंशियोंके एकमात्र स्वामी, भक्तवत्सल एवं सबके चित्तको आकर्षित करनेवाले हैं।

मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।।१०।।

आपने जीवोंके समान कर्मवश होकर नहीं, स्वतन्त्रतासे अपने भक्तोंकी तथा अपनी इच्छाके अनुसार शरीर स्वीकार किया है।

आपका यह शरीर भी विशुद्ध-ज्ञानस्वरूप है।

आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं।

मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।।११।।

भगवन्! मेरे अभिमानका अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वशके बाहर है।

जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलधार वर्षा और आँधीके द्वारा सारे व्रजमण्डलको नष्ट कर देना चाहा।।१२।।

परन्तु प्रभो! आपने मुझपर बहुत ही अनुग्रह किया।

मेरी चेष्टा व्यर्थ होनेसे मेरे घमंडकी जड़ उखड़ गयी।

आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं।

मैं आपकी शरणमें हूँ।।१३।।

त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तम्भो वृथोद्यमः ।

ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! जब देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे इन्द्रको सम्बोधन करके कहा – ।।१४।।

श्रीभगवान् ने कहा – इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे।

इसलिये तुमपर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है।

यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको।।१५।।

जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथमें दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ।

मैं जिसपर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ।।१६।।

इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो।

अब तुम अपनी राजधानी अमरावतीमें जाओ और मेरी आज्ञाका पालन करो।

अब कभी घमंड न करना।

नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोगका अनुभव करते रहना और अपने अधिकारके अनुसार उचित रीतिसे मर्यादाका पालन करना।।१७।।

परीक्षित्! भगवान् इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनुने अपनी सन्तानोंके साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्णकी वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा – ।।१८।।

कामधेनुने कहा – सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप महायोगी – योगेश्वर हैं।

आप स्वयं विश्व हैं, विश्वके परमकारण हैं, अच्युत हैं।

सम्पूर्ण विश्वके स्वामी आपको अपने रक्षकके रूपमें प्राप्तकर हम सनाथ हो गयी।।१९।।

आप जगत् के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं।

प्रभो! इन्द्र त्रिलोकीके इन्द्र हुआ करें, परन्तु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं।

अतः आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनोंकी रक्षाके लिये हमारे इन्द्र बन जाइये।।२०।।

हम गौएँ ब्रह्माजीकी प्रेरणासे आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी।

विश्वात्मन्! आपने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही अवतार धारण किया है।।२१।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर कामधेनुने अपने दूधसे और देवमाताओंकी प्रेरणासे देवराज इन्द्रने ऐरावतकी सूँडके द्वारा लाये हुए आकाशगंगाके जलसे देवर्षियोंके साथ यदुनाथ श्रीकृष्णका अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नामसे सम्बोधित किया।।२२-२३।।

उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चारण पहलेसे ही आ गये थे।

वे समस्त संसारके पाप-तापको मिटा देनेवाले भगवान् के लोकमलापह यशका गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दसे भरकर नृत्य करने लगीं।।२४।।

मुख्य-मुख्य देवता भगवान् की स्तुति करके उनपर नन्दनवनके दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे।

तीनों लोकोंमें परमानन्दकी बाढ़ आ गयी और गौओंके स्तनोंसे आप-ही-आप इतना दूध गिरा कि पृथ्वी गीली हो गयी।।२५।।

नदियोंमें विविध रसोंकी बाढ़ आ गयी।

वृक्षोंसे मधुधारा बहने लगी।

बिना जोते-बोये पृथ्वीमें अनेकों प्रकारकी ओषधियाँ, अन्न पैदा हो गये।

पर्वतोंमें छिपे हुए मणि-माणिक्य स्वयं ही बाहर निकल आये।।२६।।

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका अभिषेक होनेपर जो जीव स्वभावसे ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन हो गये, उनमें भी परस्पर मित्रता हो गयी।।२७।।

इन्द्रने इस प्रकार गौ और गोकुलके स्वामी श्रीगोविन्दका अभिषेक किया और उनसे अनुमति प्राप्त होनेपर देवता, गन्धर्व आदिके साथ स्वर्गकी यात्रा की।।२८।।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे इन्द्रस्तुतिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः।।२७।।


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