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Sant Kabirdas
कवीर के गुरु अपने समय के प्रसिद्ध राम-भक्त रामानन्द जी थे। सूफी फकीर शेख तकी से भी उन्होंने दीक्षा ली थी। पर कवीर की उपासना हिन्दू भाव से ही परिक्रमा करती रही। उनकी पूजा हिन्दू धर्म के रूढ़िवादी विचारों की नहीं थी। उन्होंने हिन्दूधर्म में आई हुई संकीर्णता की जड़ें उखाड़ी और अपनी स्पष्ट बाणी से भूले हुए मानव को रास्ता दिखाया।
कवीर दृढ विचारों के दृढ समाज सुधारक थे। मार्ग की कोई भी वाधा उनके लिये वाधा नहीं थी। दुनिया क्या कहती थी, इसकी वह विल्कुल परवाह नहीं करते थे। कबीर जिधर चले वही श्रेष्ठ मार्ग बन गया। कवीर का आत्मविश्वास अडिग था और आत्माभिमान बेजोड़। उन्होंने जो कुछ कहा स्पष्ट कहा और निडर होकर कहा।
कबीर राम भक्त थे, पर उनके राम मनुष्य रूपी राम नहीं थे अपितु पूर्ण ब्रह्म थे। उनके राम हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई सबके राम थे। कबीर के राम प्राणी-मात्र के लिये कभी न बुझने वाले दीपक थे। उनके राम और खुदा में कोई भेद नहीं था, जो राम है वही रहीम है, जो ईश्वर है वही अल्लाह है। कबीर के राम प्राणी-मात्र के परम पूज्य आधार और एक अलौकिक ज्योतिस्वरूप है, जो जन जन में रमे हुए हैं, जो सवका कल्याण करते हैं, जो न कट सकते हैं, न बंट सकते है, अर्थात् एक रस हैं। वह साकार है तो साधु की देह में और निराकार रूप में वह कण कण में व्याप्त है ही। सारांश यह कि जो ब्रह्मज्ञान मार्ग का निरूपण है वही सूफियों के रंग में रँगा हुआ कवीर का राम है।
जिस प्रकार सूर्य धरती के अंधकार को दूर करता है उसी प्रकार सन्त के उदय से अन्तर का अंधकार हटता है। परोपकार साधु-जीवन का लक्ष्य है। सन्त-मिलन के समान कोई दूसरा सुख नहीं है। यदि किसी को साधु-दर्शन मिल गये तो उसे और क्या चाहिये!
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