जीवन में संतुष्टि

Home » Articles » जीवन में संतुष्टि

जैसे किसी कली के अंदर खुशबू हो और धीरे-धीरे हवाओं में वो तैरती रहे,
– ऐसे ही भीनी-भीनी सुगंध की तरह एक मोहक मुस्कान हम सब लेकर धरती पर आए थे।
दुर्भाग्य से संसार की उलझनों के बीच हमारी वो प्रसन्नता गायब हो गई,
और गायब हो गई संतुष्टि, अंदर का संतोष, और छिन गई शांति, जो चैन था वह चला गया।


अब इंसान व्याकुल होकर भटकता है जगह-जगह,
और बहुत बार तो हम एक होड़ में एक कॉम्पीटिशन में, एक विचित्र प्रतिस्पर्धा में, ऐसे शामिल हो जाते हैं,
जैसे छोटे बच्चे रेत के घर बना बना कर यह कहे कि तेरे घर से बड़ा मेरा घर है।
या कागज के टुकड़े इकट्ठे कर कहते हैं कि तेरे पास जितने पैसे हैं उससे ज्यादा मेरे पास है।
या कांच के टुकड़े, प्लास्टिक के टुकड़े, इकट्ठे करके कहीं कि मेरे पास सोना चांदी तुझसे कहीं ज्यादा है।
जैसे हम बच्चों को देख कर हंसते हैं कि, यह क्या मूर्खता है, यह क्या बालकपन है, ऐसी मूढ़ता हम सभी करते हैं।


जो भी हमारे पास तिजोरी में जमा है, या बैंकों में जमा है, जरा सोचिए कि आंख बंद होते ही, हर चीज पराई होने में देर नहीं लगती। और दुनिया की कोई भी वस्तु कभी नहीं कहती कि तुम मेरे मालिक हो। जिसके हाथ में पड़ जाए उसी की।

  • वेदों में इस में इसलिए यह प्रश्न उठाया गया –
    • संसार को त्याग से भोगो,
    • गिद्ध की दृष्टि मत रखो,
    • विचार करो की धन किसका है।

इस धरती पर पहले भी लोग अधिकार जमाने के लिए आए, हमारे बाद भी आएंगे।
रोज कागज पर लिखकर हम लोग खुश होते हैं कि इतनी जमीन मेरी हो गई, इतनी संपत्ति मेरी हो गई। पर विचार कर देख ले यह संपत्ति ना किसी के साथ जाती है, और ना किसी व्यक्ति को अपना मालिक मानती हैं।
जीवन का कितना बड़ा कीमती समय हम लोग इसके लिए खराब करते हैं।
यह सारे साधन किस लिए हैं की जिंदगी आसान बन सके, यात्रा सुख से पूरे हो सके।
सभी यात्री हैं यात्रा के लिए हमने सामान इकट्ठा किया है की यात्रा सुखद हो सके। टाइम से पहुंच सके। यात्रा का प्रबंध करने में ही हम लगे रहे, यात्रा तो हो ही नहीं पाई।
जहां पहुंचना था वहां तक पहुंचने की बात ही अलग है। अभी तो हम सामान तैयार कर रहे हैं। सामान इकट्ठा करने में लगे रहे यात्रा भी नहीं कर पाए और पहुंच भी नहीं पाए।
तो सबसे पहले महत्वपूर्ण कड़ी यह है कि आपके पास जो प्रसन्नता भगवान ने दी थी, उसे आप ने बढ़ाना था, जो शांति आप को दी थी उसे आपको बढ़ाना था।
जो उदारता आप को दी थी भगवान ने उसे बढ़ाना था। जो आपके अंदर सरलता, मोहकता, सुकुमार रूप भगवान ने दिया था उस कोमलता को बढ़ाना था


जो आपके अंदर मन हर समय कल्पनाओं में था, फिर भी मन खाली हो जाता था।
मन बचपन में कैसा था – निश्चल, झगड़ा करने के बाद भी झगड़ा नहीं मानते थे।
एक दूसरे के ऊपर मिट्टी फेंक कर दी, बाहर से गंदा कर दिया एक दूसरे को, लेकर मन गंदा किसी का भी नहीं। जिसके साथ अभी झगड़े थे, थोड़ी देर के बाद उसी के साथ फिर खेलना है बैठकर, और भूल जाना है [पहले झगड़ा भी हुआ था।
बड़े होकर हम यह सब चीजों से दूर हो जाते हैं। क्योंकि बीच में अहंकार आ जाता है।


इसमें एक रास्ता है।
विकास हमारा कितना भी हो, हम कितने भी बड़े हो, कितने भी तरक्की करें, सांसारिक दृष्टि से तरक्की करें, लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से भी तरक्की होनी चाहिए।
इसमें काम यह करना है – अपनी शांति को बनाए रखना, अपनी प्रसन्नता को बनाए रखना, अपनी संतुष्टि को टिकाये रखना। संतुष्ट रहना है , खुश रहना है।
और इस बात का ध्यान रखना है, कि आपका बोलना अभिधा में हो व्यंजना में ना हो। मतलब व्यंग की भाषा आपकी भाषा ना हो। सीधी साधी भाषा हो, taunt नहीं कसना। यह होना ही नहीं चाहिए कि बाद में आप स्पष्टीकरण देते रहे की नहीं मेरा मतलब यह नहीं था, यह था। और दूसरे भी आपको उसी तरह से सुने और समझे।
तो एक वातावरण में हम जी सकते हैं, जो वातावरण हम को शांति दे सकता है।


बच्चा सोएगा तो भरपूर नींद सोता है। बादशाहों को नसीब नहीं है ऐसी नींद लेता है। हम लोग नहीं ले पाते। स्वाद लेगा तो भरपूर स्वाद लेता है, खेलता है तो हार जीत की चिंता किए बिना खेलता है।
कोई भी खेल ऐसा नहीं दुनिया में, जिसमें आदमी हारे नहीं और जीते नहीं।
हार जीत बाहर की चीज है। अंदर से आदमी खिला रहें और मस्त रहें तो खेल ऐसा चलता रहे।


रोज कुछ न कुछ हानि, कुछ लाभ तो होगा ही। सांझ को घर आओ तो कह दो की तेरी नौकरी जैसे दी थी आज की मजदूरी पूरी हो गई।
कम दोगे कम लेंगे, ज्यादा दोगे ज्यादा ले लेंगे। राजा बना कर रखोगे तो भी खुश है भिखारी बना कर रखोगे तो भी खुश हैं। है तो तेरे ही बेटे, चाहे तो कोई भी नाम दे दे। तू हमारा पिता हम तेरे बेटे।

Scroll to Top