शिव पुराण – शतरुद्र संहिता – 13

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भगवान् शिवका यतिनाथ एवं हंस नामक अवतार

नन्दीश्वर कहते हैं – मुने! अब मैं परमात्मा शिवके यतिनाथ नामक अवतारका वर्णन करता हूँ।

मुनीश्वर! अर्बुदाचल नामक पर्वतके समीप एक भील रहता था, जिसका नाम था आहुक।

उसकी पत्नीको लोग आहुका कहते थे।

वह उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी।

वे दोनों पति-पत्नी महान् शिवभक्त थे और शिवकी आराधना-पूजामें लगे रहते थे।

एक दिन वह शिवभक्त भील अपनी पत्नीके लिये आहारकी खोज करनेके निमित्त जंगलमें बहुत दूर चला गया।

इसी समय संध्याकालमें भीलकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शंकर संन्यासीका रूप धारण करके घर आये।

इतनेमें ही उस घरका मालिक भील भी चला आया और उसने बड़े प्रेमसे उन यतिराजका पूजन किया।

उसके मनोभावकी परीक्षाके लिये उन यतीश्वरने दीनवाणीमें कहा – ‘भील! आज रातमें यहाँ रहनेके लिये मुझे स्थान दे दो।

सबेरा होते ही चला जाऊँगा, तुम्हारा सदा कल्याण हो।’ भील बोला – स्वामीजी! आप ठीक कहते हैं, तथापि मेरी बात सुनिये।

मेरे घरमें स्थान तो बहुत थोड़ा है।

फिर उसमें आपका रहना कैसे हो सकता है? भीलकी यह बात सुनकर स्वामीजी वहाँसे चले जानेको उद्यत हो गये।

तब भीलनीने कहा – प्राणनाथ! आप स्वामीजीको स्थान दे दीजिये।

घर आये हुए अतिथिको निराश न लौटाइये।

अन्यथा हमारे गृहस्थ-धर्मके पालनमें बाधा पहुँचेगी।

आप स्वामीजीके साथ सुखपूर्वक घरके भीतर रहिये और मैं बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र लेकर बाहर खड़ी रहूँगी।

पत्नीकी यह बात सुनकर भीलने सोचा – स्त्रीको घरसे बाहर निकालकर मैं भीतर कैसे रह सकता हूँ? संन्यासीजीका अन्यत्र जाना भी मेरे लिये अधर्मकारक ही होगा।

ये दोनों ही कार्य एक गृहस्थके लिये सर्वथा अनुचित हैं।

अतः मुझे ही घरके बाहर रहना चाहिये।

जो होनहार होगी, वह तो होकर ही रहेगी।

ऐसा सोच आग्रह करके उसने स्त्रीको और संन्यासीजीको तो सानन्द घरके भीतर रख दिया और स्वयं वह भील अपने आयुध पास रखकर घरसे बाहर खड़ा हो गया।

रातमें जंगली क्रूर एवं हिंसक पशु उसे पीड़ा देने लगे।

उसने भी यथाशक्ति उनसे बचनेके लिये महान् यत्न किया।

इस तरह यत्न करता हुआ वह भील बलवान् होकर भी प्रारब्धप्रेरित हिंसक पशुओंद्वारा बलपूर्वक खा लिया गया।

प्रातःकाल उठकर जब यतिने देखा कि हिंसक पशुओंने वनवासी भीलको खा डाला है, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ।

संन्यासीको दुःखी देख भीलनी दुःखसे व्याकुल होनेपर भी धैर्यपूर्वक उस दुःखको दबाकर यों बोली – ‘स्वामीजी! आप दुःखी किसलिये हो रहे हैं? इन भीलराजका तो इस समय कल्याण ही हुआ।

ये धन्य और कृतार्थ हो गये, जो इन्हें ऐसी मृत्यु प्राप्त हुई।

मैं चिताकी आगमें जलकर इनका अनुसरण करूँगी।

आप प्रसन्नतापूर्वक मेरे लिये एक चिता तैयार कर दें; क्योंकि स्वामीका अनुसरण करना स्त्रियोंके लिये सनातनधर्म है।’ उसकी बात सुनकर संन्यासीजीने स्वयं चिता तैयार की और भीलनीने अपने धर्मके अनुसार उसमें प्रवेश किया।

इसी समय भगवान् शंकर अपने साक्षात् स्वरूपसे उसके सामने प्रकट हो गये और उसकी प्रशंसा करते हुए बोले – ‘तुम धन्य हो, धन्य हो।

मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।

तुम इच्छानुसार वर माँगो।

तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।’ भगवान् शंकरका यह परमानन्ददायक वचन सुनकर भीलनीको बड़ा सुख मिला।

वह ऐसी विभोर हो गयी कि उसे किसी भी बातकी सुध नहीं रही।

उसकी उस अवस्थाको लक्ष्य करके भगवान् शंकर और भी प्रसन्न हुए और उसके न माँगनेपर भी उसे वर देते हुए बोले – ‘मेरा जो यतिरूप है, यह भावी जन्ममें हंसरूपसे प्रकट होगा और प्रसन्नतापूर्वक तुम दोनोंका परस्पर संयोग करायेगा।

यह भील निषधदेशकी उत्तम राजधानीमें राजा वीरसेनका श्रेष्ठ पुत्र होगा।

उस समय नलके नामसे इसकी ख्याति होगी और तुम विदर्भ नगरमें भीमराजकी पुत्री दमयन्ती होओगी।

तुम दोनों मिलकर राजभोग भोगनेके पश्चात् वह मोक्ष प्राप्त करोगे, जो बड़े-बड़े योगीश्वरोंके लिये भी दुर्लभ है।’ नन्दीश्वर कहते हैं – मुने! ऐसा कहकर भगवान् शिव उस समय लिंगरूपमें स्थित हो गये।

वह भील अपने धर्मसे विचलित नहीं हुआ था, अतः उसीके नामपर उस लिंगको ‘अचलेश’ संज्ञा दी गयी।

दूसरे जन्ममें वह आहुक नामक भील नैषध नगरमें वीरसेनका पुत्र हो महाराज नलके नामसे विख्यात हुआ और आहुका नामकी भीलनी विदर्भ नगरमें राजा भीमकी पुत्री दमयन्ती हुई और वे यतिनाथ शिव वहाँ हंसरूपमें प्रकट हुए।

उन्होंने दमयन्तीका नलके साथ विवाह कराया।

पूर्वजन्मके सत्कारजनित पुण्यसे प्रसन्न हो भगवान् शिवने हंसका रूप धारण कर उन दोनोंको सुख दिया।

हंसावतारधारी शिव भाँति-भाँतिकी बातें करने और संदेश पहुँचानेमें कुशल थे।

वे नल और दमयन्ती दोनोंके लिये परमानन्ददायक हुए।

(अध्याय २८)


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